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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


न्याय/नब़ी का नीति-निर्वाह मुंशी

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धर्म का अनुराग एक दुर्लभ वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग उठता है तब बड़े प्रचण्ड रूप से उठत है। दोपहर का समय था। धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते हुए आंखों से चिनगारियां निकलती थीं। हजरत मुहम्मद अपने मकान में चिन्तामग्न बैठै हुए थे। निराशा चारों ओर अंधकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी पास बैठी हुई एक फटा कुर्ता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन के भेंट हो चुकी थी। विधर्मियों का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। इसलाम के अनुयायियों को भांति-भांति की यातनाएं दी जा रही थीं। स्वयं हजरत को घर से निकलना मुश्किल था। खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी कि आज अमुक मुसलमान का घर लूटा गया, आज फलां को लोगों नो आहत किया। हजरत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार सुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।
हजरत ने फरमाया—मुझे ये लोग अब यहां न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूं पर अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।
खुदैजा—हमारे चले जाने से तो इन बेचारों को और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम से कम आपके पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा कम नहीं होता। हजरत—तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूं। मैं अपने सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूं। अभी हम लोग यहां बिखरे हुए हैं। कोई किसी की मदद को नहीं पहुंच सकता। हम बस एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत न होगी। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं जिस पर चढ़ने का किसी को साहस न होगा। सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था न कोई आदमजाद, ऐसा मालूम होता था कि कहीं से भगी चली आ रही हैं। खुदैजा ने उसे गले लगाकर कहा—क्या हुआ जैनब, खैरियत तो है? जैनब ने अपने अन्तर्द्वन्द्व की कथा सुनाई और पिता से दीक्षा की प्रार्थना की। हजरत मुहम्मद आंखों में आंसू भरकर बोले—जैनब, मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन डरता हूं कि तुम्हारा क्या हाल होगा।
जैनब—या हजरत, मैंने खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय किया हैं दुनिया के लिए अपनी आकबत को नहीं खोना चाहती।
हजरत—जैनब, खुदा की राह में कांटे हैं।
जैनब—लगन को कांटों की परवाह नहीं होती।
हजरत—ससुराल से नाता टूट जायेगा।
जैनब—खुदा से तो नाता जुड़ जायेगा।
हजरत—और अबुलआस?

जैनब की आंखों में आंसू डबडबा आये। कातर स्वर से बोली—अब्बाजान, इसी बेड़ी ने इतने दिनों मुझे बांधे रक्खा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण में आ चुकी होती। मैं जानती हूं, उनसे जुदा होकर जीती न रहूंगी और शायद उनको भी मेरा वियोग दुस्सह होगा, पर मुझे विश्वास है कि एक दिन जरूर आयेगा जब वे खुदा पर ईमान लायेंगे और मुझे फिर उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। हजरत—बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे है। वह तकदीर को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ‘सृष्टि-संचालन के लिए खुदा की जरूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरें? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है?’ ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। अधर्म को जीतना आसान है पर जब वह दर्शन का रूप धारण कर लेता है तो अजये हो जाता है।

जैनब ने निश्चयात्मक भाव से कहा—हजरत, आत्म का उपकार जिसमें हो मुझे वह चाहिए। मैं किसी इन्सान को अपने और खुदा के बीच न रहने दूंगी। हजरत—खुदा तुझ पर दया करे बेटी। तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया। यह कहकर उन्होंने जैनब को प्रेम से गले लगा दिया।

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